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आज जब देश के तमाम बुद्धिजीवी इस बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी का अमेरिकी न्योता सच है या प्रायोजित और संजय दत्त को माफी मिलनी चाहिए या नहीं, क्या किसी को शिक्षा के अधिकार वाले कानून की भी याद है? बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा से जुड़ा ऐक्ट आरटीई हमारी संसद ने 4 अगस्त 2009 में ही पास कर दिया था।
इसके अनुसार छह से चौदह साल के बीच के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा मुहैया कराना अनिवार्य है। तब इस बात की बड़ी खुशी जाहिर की गई थी कि आखिर भारत दुनिया के उन देशों की कतार में शामिल हुआ जहां शिक्षा के अधिकार को भी मूल अधिकार समझा गया है। 1 अप्रैल, 2010 से यह कानून लागू भी कर दिया गया। लेकिन इतना वक्त गुजर जाने के बावजूद अनेक राज्यों में बच्चों को उनका यह अधिकार पूरी तरह से नहीं मिल सका है।
शिक्षा संस्थाओं और स्कूलों को इस काम को अंजाम देने के लिए 31 मार्च 2013 तक का समय दिया गया था। लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि राज्यों ने इसे गंभीरतापूर्वक लागू ही नहीं किया। इसके तहत बाकायदा कहा गया था कि प्राथमिक शिक्षा पूरी होने तक किसी बच्चे को स्कूल आने से रोका या निकाला नहीं जाएगा। छह साल से ऊपर के ऐसे बच्चों को भी, जो कभी स्कूल में भर्ती ही नहीं कराए गए, उन्हें उम्र के मुताबिक कक्षा में प्रवेश दिया जाएगा।
शिक्षक और छात्रों का एक निश्चित अनुपात रखने की सिफारिश की गई थी। व्यवस्था यह भी की गई थी कि आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों के लिए सभी निजी स्कूलों में 25 फीसदी आरक्षण जरूरी होगा। पढ़ाने वालों की योग्यता के बारे में भी कुछ जरूरी निर्देश दिए गए थे। तब कहा गया था कि स्कूलों में बुनियादी ढांचा तीन बरस के भीतर ठीक कर लिया जाए। ऐसा न करने पर मान्यता रद्द की जा सकती है। लेकिन हालत यह है कि देश के ज्यादातर स्कूलों में अब भी इमारत, चारदीवारी, टॉयलेट, कमरे, पीने का पानी जैसे बुनियादी इंतजाम ठीक नहीं हो पाए हैं।
अनुमान है कि इन तीन वर्षों में सिर्फ दस फीसदी स्कूलों में ही ये इंतजाम पूरे किए जा सके हैं। देश के 40 फीसदी प्राइमरी स्कूलों में योग्य पढ़ाने वाले मौजूद नहीं हैं। 33 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए टॉयलेट का इंतजाम नहीं है। 39 फीसदी स्कूलों में विकलांग बच्चों के लिए रैंप की व्यवस्था नहीं है। अध्यापकों के 11 लाख पद अब तक खाली पड़े हैं। दुनिया के एक तिहाई निरक्षरों वाले इस देश के लिए यह हालत कतई संतोषजनक नहीं कही जा सकती।
सरकार को चाहिए कि वह ऐसी संस्थाओं के खिलाफ कड़े कदम उठाने में बिलकुल देरी न करे, जिन्होंने इस कानून के निर्देशों के पालन में कोताही बरती है। अगर इस मामले में सरकार का रवैया ढुलमुल रहा तो जरूरतमंद बच्चों को उनका यह हक कभी नसीब न हो पाएगा
आज जब देश के तमाम बुद्धिजीवी इस बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि नरेंद्र मोदी का अमेरिकी न्योता सच है या प्रायोजित और संजय दत्त को माफी मिलनी चाहिए या नहीं, क्या किसी को शिक्षा के अधिकार वाले कानून की भी याद है? बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा से जुड़ा ऐक्ट आरटीई हमारी संसद ने 4 अगस्त 2009 में ही पास कर दिया था।
इसके अनुसार छह से चौदह साल के बीच के प्रत्येक बच्चे को शिक्षा मुहैया कराना अनिवार्य है। तब इस बात की बड़ी खुशी जाहिर की गई थी कि आखिर भारत दुनिया के उन देशों की कतार में शामिल हुआ जहां शिक्षा के अधिकार को भी मूल अधिकार समझा गया है। 1 अप्रैल, 2010 से यह कानून लागू भी कर दिया गया। लेकिन इतना वक्त गुजर जाने के बावजूद अनेक राज्यों में बच्चों को उनका यह अधिकार पूरी तरह से नहीं मिल सका है।
शिक्षा संस्थाओं और स्कूलों को इस काम को अंजाम देने के लिए 31 मार्च 2013 तक का समय दिया गया था। लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि राज्यों ने इसे गंभीरतापूर्वक लागू ही नहीं किया। इसके तहत बाकायदा कहा गया था कि प्राथमिक शिक्षा पूरी होने तक किसी बच्चे को स्कूल आने से रोका या निकाला नहीं जाएगा। छह साल से ऊपर के ऐसे बच्चों को भी, जो कभी स्कूल में भर्ती ही नहीं कराए गए, उन्हें उम्र के मुताबिक कक्षा में प्रवेश दिया जाएगा।
शिक्षक और छात्रों का एक निश्चित अनुपात रखने की सिफारिश की गई थी। व्यवस्था यह भी की गई थी कि आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों के लिए सभी निजी स्कूलों में 25 फीसदी आरक्षण जरूरी होगा। पढ़ाने वालों की योग्यता के बारे में भी कुछ जरूरी निर्देश दिए गए थे। तब कहा गया था कि स्कूलों में बुनियादी ढांचा तीन बरस के भीतर ठीक कर लिया जाए। ऐसा न करने पर मान्यता रद्द की जा सकती है। लेकिन हालत यह है कि देश के ज्यादातर स्कूलों में अब भी इमारत, चारदीवारी, टॉयलेट, कमरे, पीने का पानी जैसे बुनियादी इंतजाम ठीक नहीं हो पाए हैं।
अनुमान है कि इन तीन वर्षों में सिर्फ दस फीसदी स्कूलों में ही ये इंतजाम पूरे किए जा सके हैं। देश के 40 फीसदी प्राइमरी स्कूलों में योग्य पढ़ाने वाले मौजूद नहीं हैं। 33 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए टॉयलेट का इंतजाम नहीं है। 39 फीसदी स्कूलों में विकलांग बच्चों के लिए रैंप की व्यवस्था नहीं है। अध्यापकों के 11 लाख पद अब तक खाली पड़े हैं। दुनिया के एक तिहाई निरक्षरों वाले इस देश के लिए यह हालत कतई संतोषजनक नहीं कही जा सकती।
सरकार को चाहिए कि वह ऐसी संस्थाओं के खिलाफ कड़े कदम उठाने में बिलकुल देरी न करे, जिन्होंने इस कानून के निर्देशों के पालन में कोताही बरती है। अगर इस मामले में सरकार का रवैया ढुलमुल रहा तो जरूरतमंद बच्चों को उनका यह हक कभी नसीब न हो पाएगा
पहले दिन 132 सहायक अध्यापकों ने भरे विकल्प
•काउंसिलिंग में 98 शिक्षिकाओं ने अपनी पसंद भरी
•शिक्षिकाओं ने काउंसिलिंग में लगाया मनमानी का आरोप
इलाहाबाद। अंतरजनपदीय तबादले के बाद जिले में आई शिक्षिकाओं की काउंसिलिंग सोमवार को शुरू हो गई। काउंसिलिंग के पहले दिन डायट में 135 से 132 शिक्षक और शिक्षिकाओं ने विकल्प पत्र भरकर अपनी पसंद भरी। पहले दिन डायट में विकल्प पत्र भरने पहुंची शिक्षिकाओं ने आरोप लगाया कि बेसिक शिक्षा अधिकारी ने सभी विद्यालयों में खाली पदों का विकल्प नहीं खोला है। उन्होंने आरोप लगाया कि शहर से पास के स्कूलों जहां पद खाली हैं, वह भी नहीं खोले गए हैं। शंकरगढ़, कोरांव, मांडा के विद्यालयों को खोला गया है। शिक्षिकाओं ने इस बात को लेकर बीएसए से मिलकर समस्या बताई। बीएसए का कहना है कि दूसरे जिले से आई शिक्षिकाएं मात्र शहर से लगे ब्लाक में ही पढ़ाना चाहती हैं, आखिर में कोरांव, मांडा, मेजा ,शंकरगढ़ ब्लाक के स्कूलों के बच्चों का क्या दोष है कि उनको पढ़ने की सुविधा न मिले। काउंसिलिंग से पहले ही अनियमितताओं का आरोप लगा रहे शिक्षक संघ के नेता भी पहले दिन ही गायब रहे।
काउंसिलिंग कराने के लिए सोमवार को उच्च प्राथमिक विद्यालयों के 135 शिक्षिकाओं और विकलांग पुरुषों को बुलाया था। विकल्प पत्र भरने के लिए शिक्षिकाओं की भीड़ सुबह से ही डायट में जुटने लगी थी। दोपहर तक भीड़ इतनी हो गई कि लिस्ट देखने के लिए धक्का-मुक्की होने लगी। शाम तक सौ शिक्षिकाओं में से 98 और 35 में से 34 विकलांग पुरुष शिक्षकों ने काउंसिलिंग कराई। मंगलवार से प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षिकाओं की काउंसिलिंग शुरू होगी जो पांच अप्रैल तक चलेगी। बीएसए पीके शर्मा ने बताया कि काउंसिलिंग के बाद स्कूलों को लॉक कर दिया जाएगा और नई लिस्ट जारी की जाएगी
•काउंसिलिंग में 98 शिक्षिकाओं ने अपनी पसंद भरी
•शिक्षिकाओं ने काउंसिलिंग में लगाया मनमानी का आरोप
इलाहाबाद। अंतरजनपदीय तबादले के बाद जिले में आई शिक्षिकाओं की काउंसिलिंग सोमवार को शुरू हो गई। काउंसिलिंग के पहले दिन डायट में 135 से 132 शिक्षक और शिक्षिकाओं ने विकल्प पत्र भरकर अपनी पसंद भरी। पहले दिन डायट में विकल्प पत्र भरने पहुंची शिक्षिकाओं ने आरोप लगाया कि बेसिक शिक्षा अधिकारी ने सभी विद्यालयों में खाली पदों का विकल्प नहीं खोला है। उन्होंने आरोप लगाया कि शहर से पास के स्कूलों जहां पद खाली हैं, वह भी नहीं खोले गए हैं। शंकरगढ़, कोरांव, मांडा के विद्यालयों को खोला गया है। शिक्षिकाओं ने इस बात को लेकर बीएसए से मिलकर समस्या बताई। बीएसए का कहना है कि दूसरे जिले से आई शिक्षिकाएं मात्र शहर से लगे ब्लाक में ही पढ़ाना चाहती हैं, आखिर में कोरांव, मांडा, मेजा ,शंकरगढ़ ब्लाक के स्कूलों के बच्चों का क्या दोष है कि उनको पढ़ने की सुविधा न मिले। काउंसिलिंग से पहले ही अनियमितताओं का आरोप लगा रहे शिक्षक संघ के नेता भी पहले दिन ही गायब रहे।
काउंसिलिंग कराने के लिए सोमवार को उच्च प्राथमिक विद्यालयों के 135 शिक्षिकाओं और विकलांग पुरुषों को बुलाया था। विकल्प पत्र भरने के लिए शिक्षिकाओं की भीड़ सुबह से ही डायट में जुटने लगी थी। दोपहर तक भीड़ इतनी हो गई कि लिस्ट देखने के लिए धक्का-मुक्की होने लगी। शाम तक सौ शिक्षिकाओं में से 98 और 35 में से 34 विकलांग पुरुष शिक्षकों ने काउंसिलिंग कराई। मंगलवार से प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षिकाओं की काउंसिलिंग शुरू होगी जो पांच अप्रैल तक चलेगी। बीएसए पीके शर्मा ने बताया कि काउंसिलिंग के बाद स्कूलों को लॉक कर दिया जाएगा और नई लिस्ट जारी की जाएगी
काउंसिलिंग कराने के लिए सोमवार को उच्च प्राथमिक विद्यालयों के 135 शिक्षिकाओं और विकलांग पुरुषों को बुलाया था। विकल्प पत्र भरने के लिए शिक्षिकाओं की भीड़ सुबह से ही डायट में जुटने लगी थी। दोपहर तक भीड़ इतनी हो गई कि लिस्ट देखने के लिए धक्का-मुक्की होने लगी। शाम तक सौ शिक्षिकाओं में से 98 और 35 में से 34 विकलांग पुरुष शिक्षकों ने काउंसिलिंग कराई। मंगलवार से प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षिकाओं की काउंसिलिंग शुरू होगी जो पांच अप्रैल तक चलेगी। बीएसए पीके शर्मा ने बताया कि काउंसिलिंग के बाद स्कूलों को लॉक कर दिया जाएगा और नई लिस्ट जारी की जाएगी
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